मैं अविरत तुझे बाहर ढूंढ रही थी,
तुम भीतर में, मेरे यूं मुस्कुरा रहे थे ।
मैं क्षितिज को नाप ने चली थी,
तुम हवा बनके यूं ही सहज छू रहे थे ।
मैं परछाई को सच मान, भटक सी गई थी,
तुम खुशबू बनके सांसों में चल रहे थे ।
अब तो उस सफ़र पे चल पड़ी हूं
जहां मौन की महिमा है
शब्द यहां आकर वजूद खो देते हैं
प्रेम भक्ति बन जाता है
घाव सरगम से लगते हैं
करुणा रोम रोम बसती है।
सफ़र की ना जाने कोई
मंजिल भी है,
बस मौन से मेरा परिचय करा दे,
अब तो मुझे शंभो, तू तुझ में मिला दे ।।
- Shalu Makhija
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