किताब सी ज़िंदगी+
मुझे तो अब जिंदगी ही
एक किताब सी लगती है,
बचपन से जवानी तक
कहानी लिखने का मन करता था,
ख्वाहिशों के मेले में
रंग भरने का मन करता था,
कुछ मिटाके फिर बनाना,
आसान प्रतीत होता था ।
अब बस इस किताब को
पढ़ने का मन करता है,
जैसे कि कहानी स्वयं
आकार ले रही हैं,
मैं तो बस दूर एक कोने में
खड़ी तमाशा देख रही हूं,
बनना, बिगड़ना अब एक
खेल लग रहा है,
और मैं खुद को सूत्रधार मान के
बेकार ही इतरा रही थी ।
सारी इच्छाएं , महत्वाकांक्षाएं
अब अर्थहीन ज्ञात हो रही है,
हवा का एक झोंका
और ये दाव आखरी होगा,
कुछ पल का मेला
बस मुस्कुराके दूर से ही
देखने को सज हो रही हूं।।
July 25th 2024
©Shalu Makhija
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